By Anshuman Thakur
कुसुम, पुष्प स्वरूप विस्तार करे,
काक प्रभात का नाद करे।
चाँद शीतल एकाग्र बड़ा था,
सूर्य भी कुछ दूर अशांत खड़ा था।
दोनों के दो लोचन सुभाषित,
लोचनों में पर-छवि प्रकाशित ।
उस काल का कुछ अलग भेद था,
दोनों के बीच नहीं कोई खेद था।
प्रेम प्रसंग के वे दो ही पात्र थे,
पर अति दूरी थी उनमें अति अभाग्य से ।
मैं षठ था, था अबोध - अज्ञानी,
उस क्षण की न महिमा जानी!
श्रावण मास पथ पर अटल था,
काल राथ पर आरुढ अचल था।
नवीन भक्ति मुझे चढ़ी थी मुझको,
मैं भी प्रभूव्रता पुरुष बना था।
नित क्रिया से निमृत होकर,
भोर पाँच बजे नहा और धोकर,
धारण कर मैं स्वच्छ परिधान,
निकला करने कर्म महान ।
सौ पग दूर मंदिर छोटा सा,
जिसका स्वामी स्वयं विश्वनाथ थे,
भक्तो की सुध लेने को वे,
लिंग रूप में थे विराजते ।
अति सुगंधित एवं सुलेपित,
कनेर - धतूर थे उनपर अर्पित ।
देखकर वह मधुर सी आभा,
कैसे रहता मन संकोचित ?
मंत्र - पुष्पांजलि मिश्रित कर जल में,
लोटे से शिवलिंग पर चढ़ाया।
अर्चित - पूजित कर लेने पर,
भक्त कामनाएँ आगे लाया।
भक्त कहता है -
क्या कल की मैं बात बताऊँ,
अपनी व्यथा मैं तुम्हें सुनाऊँ ।
घड़ी के काँटे दौड़ रहे थे,
शिक्षक गण स्वं प्रौढ़ खड़े थे।
कालचक्र था गतिबद्ध,
अपने कर्मों पर प्रतिबद्ध ।"
"उसकी एक झलक पाने को,
अपने दिल की बेचैनी मिटाने को।
था मैं बड़े ही इंतज़ार में,
विदीर्ण समय के अत्याचार से।
जो थी मेरी श्रद्धा सच्ची,
तो मुझको तुम आशिर्वाद दो।"
"उसके हृदय में स्थान दो,
मेरे प्रेम का न अपमान हो।"
आगे-
संग बैठ मित्र सखा के साथ,
करने लगा मैं दिल की बात।
"सत्य सी लगती है वो,
मोह - मिथ्या में क्या ही है रखा?"
बतलाता हूँ मैं वर्णन उसका,
ज़रा सुनो ध्यान से मेरे सखा।"
'मुख - मंडल कांति विराजे,
काले केश मुकुट से साजे ।
खोल केश वह सर्वजगमोहक,
विष्णु-माथा बन जाती है।
बाँध शिखा वह ज्ञान-सिंध सी,
गायत्री रूप दिखलाती है।"
"मैन- नक्ष उसके करे कटाक्ष,
मैं हृदय-मूर्छित हूँ इसका साक्ष।
उसके कर्ण - फूलों की आभा,
दर्शाते चंद्र लोक की प्रभा ।
उसके नयनों की चमक में,
सुशोभित होती नक्षत्रों की सभा ।"
मित्र ने कहा ये कैसे सही है?
वर्णन में तो वर्ण ही नहीं है !
जिस प्रेम की दुहाई दे, तू समक्ष हमारे रोता है,
ज़रा तू चल ये भी बता, उस प्रीत का रंग क्या होता है?
"न श्वेत, न चटक लाल,
न स्वर्ण वर्ण, जो रहे साँय काल।
न अति नील, न अति हरित,
न अति पीत, है वो मेरे मीत!"
"जो था वर्ण घणश्याम का,
जो वर्ण है मेघश्याम का,
वही रंग ओ मेरे सरखा,
उसका आभूषण बनता है।
वही रंग रे मित्र मेरे,
मुझे उसका आकर्षित करता है।"
"जो वो कृष्ण, मैं भी राधा,
चक्षुओ से मैने उसे साधा।
उसे ढूँढ़ते इधर-उधर,
मेरी नज़रे कहाँ थकती हैं?
उसकी हँसी अमोघ बाण सी,
सीधे मेरा दिल छूती हैं।"
By Anshuman Thakur
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