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महताब लहका बेशा-ए-मिज़्गाँ सियाह था

Updated: Apr 19

By Odemar Bühn


महताब लहका बेशा-ए-मिज़्गाँ सियाह था

महताब लहका बेशा-ए-मिज़्गाँ सियाह था

यकलख़्त चुपके हो चुका वस्ल-ए-निगाह था


पंखों की फड़फड़ाहट उसे फ़ाश कर गयी

मदफ़ूँ है वो फ़रिश्ता जो सबका गवाह था


रौशन शरर को रात में बुझकर पड़ा ये याद

परवाना था तो मैं ही तो योंही सियाह था


गालों से सारी रातें ढलक जाती रहती थीं

तनहा वो अश्क गोया कि जावेद माह था


नीला उफ़ुक़ दहकता था साया था हमसफ़र

हरगाम चुरमुरा रहा गर्दा-ए-राह था


मुस्कान को संभालना क्यों इतना सख़्त था

पुल जिसपे बाँधना था ‘नफ़स’ क्या अथाह था


By Odemar Bühn


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