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दरमियान।।...

By Abhimanyu Bakshi



ज़िंदगी है फ़ुरसत-ओ-मसरूफ़ियत के दरमियान,

मैं खड़ा हूँ तसव्वुर-ओ-असलियत के दरमियान।


एक हसरत थी दोनों में राब्ता बनाने की,

अब दुश्मनी है ख़यालात-ओ-हक़ीक़त के दरमियान।


मरकर मिसाल बनने का भी तो ज़िम्मा है मुझ पर, 

कैसे जियूँ ला-फ़नाइयत-ओ-फ़नाइयत के दरमियान।


बन्दगी आती नहीं और भलाई ज़रा महँगी है,

मैं खड़ा हूँ इबादत-ओ-इंसानियत के दरमियान।


देखना ज़ाहिद कैसे फिर रुतबा मिट्टी होता है,

आकर बैठो कभी लोभ-ओ-रूहानियत के दरमियान।


By Abhimanyu Bakshi



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7件のコメント


Muskan Datta
Muskan Datta
2024年11月10日

Very well written!

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seema pahwa
seema pahwa
2024年11月10日

Woww nice

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Piyushgarment
2024年11月10日

Beautiful poem

編集済み
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Karan Kalra
Karan Kalra
2024年11月10日

Wah wah, subhan allah

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raghav kalra
raghav kalra
2024年11月10日

Very nice

編集済み
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