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छोटी ठकुराइन

By Vandana Singh Vasvani



ये कहानी उन दिनों की  हैं जब भारत आजाद ही हुआ था उन दिनों बलिस्टर की पढ़ाई यानी की बलिस्टर बाबू बनने की एक परंपरा से चल गयी थी । हर समुदाय से लोग अपने बेटे को जरूर लंदन यार  रूस   वकालत पढ़ने के लिए भेजते थे । 

 ये कहानी बंगाल,   शहरी चकाचौंध से दूर  आस्थान बांकुरा की है । 

बकुरा में रहने वाले कैलाश बाबू और प्रभा इन दोनों की है ये कहानी।  

इस कहानी में कुल चार पात्र है जिनपे ये कहानी पूरी तरह से केंद्रित है । अच्छा चलिए बताएं क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं मृत्यु के उपरान्त भी कोई दुनिया होती है ? अगर हाँ और अगर नहीं तो दोनों ही अवस्था में आप इस कहानी से परिचित जरूर होना चाहेंगे। 

कहानी के पात्र – कैलाश बाबू , प्रभा , आजी माँ , ड्राइवर धानुक राम और  रिक्शावाला । 

उस दिन बहुत ही तेज बारिश हो रही थी सुबह से शाम ढलने वाली थी लेकिन ऐसा लग रहा था मानो दिन में ही अँधेरी रात हो गई हो । तेज हवा और घनी फुहारों के साथ बिजली कड़क रही थी चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा था । कहीं दूर दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था केवल अंधेरी छाया और बारिश के । ऐसी घनी और डरावनी बरसात की शाम कैलाश बाबू अपनी गाड़ी में ड्राइवर को बोलते हैं – सुनो धानुक राम तुम पता अच्छे से समझ लो। 

ड्राइवर ने जवाब दिया जी , जी बाबू साहब हम समझ गए हैं कुछ ही देर में हम वहाँ पहुँच जाएंगे । 


कैलाश बाबू बार बार अपनी कोट के पैकेट से एक एक कागज निकाल रहे थे , और वो था प्रभा का आखिरी पत्र। 

प्रभा ने पत्र में लिखा था , अरे वो कैलाश बाबू अब जब आओगे ना तो इस पुरें जगह में सिर्फ हमारी हवेली दिखती है हवेली के ऊपर लिखा है छोटी ठकुराइन। 

कैलाश बाबू की गाडी धीरे धीरे तेज बारिश के साथ बांकुरा पहुँच जाती है। जैसे ही ड्राइव कार रोकता है वहाँ से दो लोग अपने पीठ पे बोरी रखे हुए गुजर गए । ड्राइवर कार का दरवाजा खोलता है छाता निकालता है और कहता है – बाबू साहब आइए हवेली की तरफ चलते हैं । 

उस दिन बारिश इतनी तेज थी की खुद को संभालना मुश्किल था अब ऐसे में कैलाश बाबू ने ड्राइवर से कहा – सुनो तुम कार के अंदर ही बैठो मैं प्रभा से मिलकर कुछ 1 घंटे में वापस आता। 

कैलाश बाबू उस तेज बारिश में छाता लिए हवेली को ढूंढने लगते हैं । मन ही मन बुदबुदाते हैं प्रभा ने खत में लिखा था की हवेली का रंग गोरी दुल्हन के गुलाबी गाल जैसे बिल्कुल गुलाबी है, दूर से ही चमकती है हमारी हवेली। लेकिन यहाँ तो कोई भी और गुलाबी रंग से पोती हुई हवेली नहीं दिख रही खैर मैं आगे चलकर देखता हूँ । 

उस अंधेरी शाम में तेज बारिश के साथ कैलाश बाबू के जूतों की आवाज मानो एक अलग डरावना सा आवाज  दे रही थी – जूतों की आवाज टक टक ........टक एक तो चारों तरफ सन्नाटा डरावनी सी बारिश की आवाज़ें और उसपे आस पास किसी का न होना । 

इधर उधर नज़र घुमाते हुए अचानक से कैलाश बाबू की नजर एक धुंधली सी बिजलियों के चमक के साथ दिखने वाली हवेली पर पड़ी । 

ये क्या इस हवेली का रंग तो बिल्कुल काला है और यहाँ कुछ भी नहीं लिखा हुआ है, प्रभा ने कहा था की हवेली के ऊपर छोटी ठकुराइन लिखा होगा। कैलाश बाबू धीरे धीरे हवेली के मुख्य द्वार तक पहुंचते ।  

हवेली का मुख्य द्वार मानव कैलाश बाबू के इंतजार में ही खड़ा था जैसे ही कैलाश बाबू के कदमों की आहट उस मुख्य द्वार तक पड़ी द्वारा अपने आप ही खुल गया। 

कैलाश बाबू हवेली के अंदर चलते हुए , कितना अंधेरा है अजीब बात है किसी ने रौशनी तक नहीं की है हवेली में हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है केवल। अभी तक एक भी इंसान इस हवेली में दिख नहीं रहा है मुझे । मैं और मेरी आँखें धोखा खा रही है या इस अजीब सी बारिश का असर है । 

जैसे ही कैलाश बाबू हवेली के मुख्य हॉल तक पहुँचते हैं, दरवाजे पर खड़ी आजी बाई {प्रभा की हवेली में देख रेख या यूं कहें कि निगरानी करने के लिए रखी गई थी } रोकती है उनको – अरे रुको बाबू रुक जाओ मैं कहती हूँ वही रुक जाओ क्या करने आये हो तुम यहाँ ? क्या मिलेगा अब तुमको यहाँ पे कुछ भी नहीं है देख रहे हो यह काली अंधेरी रात और ये मनहूस बारिश यही मिलेगीं यहाँ पे जाओ उल्टे पांव अभी इसी वक्त इस द्वार से तुम लौट जाओ अभी के अभी । 

कैलाश बाबू उनको देखते ही पहचान लेते हैं क्योंकि प्रभा ने खत में आजीबाई का जिक्र बहुत विस्तार से किया था । अरे आजीबाई  मुझे प्रभा से मिलना है आजीबाई और आप मुझे यही रोक रही है। 

जाईये प्रभा को आवाज लगाइए और बोलिए की कैलाश आया है , अरे बुत की तरह क्यों खड़ी है जाइए जल्दी जाइए । 

लगता है इस बारिश की ठंडक तुम्हारे दिमाग पर असर कर गई है , आजीबाई  की यह बात सुनकर कैलाश बाबू बोल पड़ते है – क्या बोल रही है आप क्यों ऐसे बात कर रही है हुआ क्या है आपको जाये जल्दी जाकर प्रभाव को बुलाइए । आजीबाई जहाँ खड़ी थीं वहीं खड़ी खड़ी उनको आंखें फाड़ फाड़कर देखने लगी । कुछ देर के लिए कैलाश बाबू की आँखें और आजीबाई की आंखें वार्तालाप करने लगी – ये खामोशी , ये सन्नाटा और ये अंधेरा कुछ कह रहा है क्या ?  

कैलाश बाबू के मन में तरह तरह के विचार आंख मिचौली खेल रहे थे जैसे कितने सालों के बाद देखूंगा प्रभा को , क्या कहूंगा उसको देख कर , क्या मेरे पास उसके सवालों का जवाब है क्या उसकी आँखों में कोई दर्द की कहानी भी होगी और जाने कैसे कैसे सवाल । कैलाश बाबू अब खुद को रोक नहीं पाते हैं और  चिल्लाते हुए प्रभा को पूरे हवेली में आवाज लगाते हैं – प्रभा ........प्रभा कहाँ हो तुम अभी तक द्वार पे तुम आई भी नहीं क्या तुम मेरा स्वागत नहीं करोगी ? कैलाश बाबू आवाज लगाते लगाते हवेली के मुख्य हॉल में पहुँच जाते और चारों तरफ नजर घुमाकर देखते हैं तो हवेली में किसी चीज़ की कमी नहीं थी , जैसा प्रभा ने पत्र में जिक्र किया है हवेली वाकई वैसी ही है । पास में एक आलीशान कुर्सी पे कैलाश बाबू बैठ जाते हैं । जैसे ही कैलाश बाबू उस कुर्सी पर बैठते हैं उनको एक अनुभव सा होता है , ये कुर्सी इतनी ठंडी क्यों है इतनी ज्यादा मानो बर्फ़ की थैली हो । लगता है बारिश की पानी मेरे कपड़ों पे जो है उसकी वजह से ही कुर्सी इतनी ठंडी लग रही है लेकिन इतनी भी तो नहीं ?   

कैलाश बाबू उस हॉल में चारों तरफ नजर घुमाते हैं – अरे प्रभा कहाँ हो तुम देखो सामने आ जाओ अरे अब आप भी जाओ , अचानक से कैलाश बाबू की आंखें सामने ठगी हुई 7.5 फिट की तस्वीर पे पड़ती है जो कि प्रभा की थी एक दम देवी का रूप लग रही थी वो तस्वीर में । बनारसी साड़ी प्राणियों की तरह जेवर से सजी माथे पर चमकती लाल सिंदूरी बिंदी और पूरे मांग में भरे सिदूर ये सब कुछ प्रभा को रानी जैसा  बना रहे थे। 

अभी कैलाश बाबू उस तस्वीर को देख ही रहे थे क्या उनके दाहिने एक बहुत ही सुंदर झूले पे बैठी प्रभा की आवाज गूंज गई हवेली में। लाल रंग की बनारसी साड़ी , पैरों में लाल महावर , भारी झांझर और जेवर से सजी हुई प्रभा झूले पर बैठी मुस्कुरा रही थी। कैलाश बाबू झूले से मात्र आठ नौ कदम की दूरी पर खड़े थे , प्रभा को देखते हुए ही कैलाश बाबू उसकी तरफ बढ़ने लगे और अचानक से कदम लड़खड़ाने से वो झूले पे बैठी प्रभा की ऊपर गिरते गिरते बचते । कैलाश बाबू का हाथ प्रभा के हाथों पर जाकर रुकता है । जैसे ही कैलाश बाबू का हाथ प्रभाव के हाथ में पड़ा - अरे प्रभा क्या हुआ है तुमको इतनी ठंड तुम्हारे हाथों में बर्फ़ लगे हैं क्या ? और तुम्हारे हाथ ऐसा क्यों लग रहा है मानो पानी में बहुत दिनों से गला हुआ हो, तुम्हें क्या हुआ है प्रभा ? 

 बस ये कैसी हालत बना रखी है तुमने पूरा शरीर बर्फ़ सा महसूस हो रहा है और तुम्हारे हाथ ये तुम्हारे हाथों के ऊपर  मानो मैदे की पकड़ी जमी हुई है।  

कैलाश बाबू अचानक से वहीं मैच के पास खड़े हो जाते हैं – अच्छा खैर छोड़ो ये बताओ तुम कैसी हो? लग तो रही है बहुत सुंदर और कहा है तुम्हारे राजा बाबू ओहो हो छोटी ठाकुराइन । बस अभी कैलाश बाबू कुछ बोलना ही चाह रहे थे कि आजी बाई बस बोल पड़ती  है – मैं अभी भी बोलती हूँ बाबू निकल जाओ यहाँ से अरे चली जाओ जल्दी चले जाओ यहाँ से नहीं तो तुम जीवन भर आज की रात नहीं भूल पाओगे। अरे आजीबाई  इतनी बारिश में भीगकर आया हूँ मेरे लिए ज़रा मसाले वाली चाय, पकौड़े और अगर मच्छी है घर में तो वो तल कर ले आये । इतने में ही बीच में प्रभा की आवाज गूंजती है – अरे आजीबाई  जल्दी जल्दी जाओ और  गर्म मसाले वाली चाय , प्याज के पकौड़े और हाँ कैलाश बाबू को मच्छी बहुत पसंद है ना तो थोड़ी वो भी तल के ले आ... जा ना आजीबाई। कैलाश बाबू प्रभा की तरफ देखते हैं -  प्रभा तुम्हारी आँखें इतनी लाल और थोड़ी अजीब सी लग रही है तुम पहली जैसी नहीं रही । बस इतना सुनने के बाद प्रभा  ज़ोर से हंसने लगी , उसके बाल मानो हवा में बिल्कुल खड़े हो गए और वो एक डरावनी हँसी मैं बदल गई । कैलाश बाबू प्रभा की तरफ बढ़ते हैं और जैसे ही उसके पास खड़े होते हैं तो वो देखते हैं की फर्श  पूरा का पूरा पानी फैला हुआ है । प्रभात तुम तो हवेली के अंदर थे फिर तुम बारिश में कैसे भीग गयी इतना पानी पानी क्यों है तुम्हारे आस पास ? 

प्रभा में कुछ पूछ रहा हूँ बताओ ना तुम खुश होना ? प्रभा की आवाज पूरी हवेली में गूंजती है – हाँ हाँ कैलाश बाबू मैं बहुत खुश हूँ इतनी की पूछो मत देखो देखो मेरे गाल चमक रहे है ना,  इतना खाती हूँ- इतना खाती हूँ कि खून से पूरा शरीर सफेद हो गया है । खैर तुम बताओ कैलाश बाबू कैसे हो ? और तुम्हारी धर्मपत्नी कैसी है बच्चे हुए की नहीं ? 

कैलाश बाबू हँसते हुए बोलते हैं ज़रा सांस तो ले लो प्रभा मेरे मन में तो बचपन से ही किसी और की तस्वीर बसी हैं मैं किसी और से शादी कैसे कर सकता था । प्रभा – अच्छा इतना प्रेम था तो उसे छोड़कर क्यों गए ? 

चिल्लाते हुए प्रभा की आवाज़ फिर से हवाली में गूंजी जवाब दो कैलाश बाबू क्यों छोड़ कर गए और जो गए तो फिर एक बार सोचा भी नहीं की किस हाल में होगी वो ? अब कुछ भी पहले जैसा नहीं है कैलाश बाबू सब कुछ बदल गया है । 

कैलाश बाबू प्रभा को गौर से देखते हैं – तुम ऐसी क्यों लग रही हो प्रभा क्या तुम बहुत देर से बारिश में भीग रही थी । आखिर हुआ क्या है ? 

इतने में आजीबाई अब  आ जाती है और वो बोलती है बार बार बार बार एक ही सवाल क्यों पूछ रहे हो ? जब तुम हवेली के दरवाजे तक पहुंचे थे क्या रास्ते में दो लोग बोरी ले के जाते हुए दिखे थे तुमको ?  

कैलाश बाबू पीछे मुड़कर आजीबाई  को देखते हैं फिर उनको ध्यान आया आजीबाई   भी मानो कितने दिनों से पानी में फुलकर आकर खड़ी हो गई हो ।  कुछ देर के लिए हवेली में सन्नाटा छा जाता है तभी अचानक तेज बिजली कड़कने की आवाज आती है ........ प्रभा  तो मुझे ऐसा क्यों देख रही हो ? 

प्रभा चिल्लातीं हुई आक्रोश भरी आवाज में कहती हैं तो क्या करूँ-क्या करूँ मैं ? बार बार तुम एक ही सवाल पूछ रहे हो,पानी में भींगी हो । तो सुनो कैलाश बाबू ये जो सामने खड़ी है ना प्रभा, ये पुराने बगीचे के पास जो तालाब है उस तालाब पिछले 2 साल से पानी में ही पड़ी हुई है , जानते हो कैसे टुकड़ों में कई टुकड़ों में। तालाब का पानी बहुत ठंडा है कैलाश बाबू बहुत ठंडा है । उस दौरान तो मेरी उम्र ही क्या थी जब ब्याह दी गई थी इस बड़े से हवेली के बाबू साहब से । मात्र आपकी प्रभा 10 साल की थी और और इस हवेली के भारी जेवर और  रीति रिवाजों का भार हमारे तन पे डाल दिया गया । तुम को तो पता ही था ना कि हमारे समुदाय में बेटियों को 9  - 10 साल की उम्र में ही ब्याह देते हैं फिर भी तुम बिना मुझसे  ब्याह  किये ही चले गए तुम्हें बैरिस्टर बाबू जो बनना था |  सुन सकते हो तो  सुनो .....अभी तो कुछ ही दिन बीते थे इस हवेली में आए हुए की मुझे खेलने कूदने से भी रोक दिया गया । 1 दिन की बात थी कि मैं अपनी सखी  के साथ तालाब के पास जो बगीचा हैं उसमें घूमने चली गई और खेल खेल में शाम ढल गयी मैं बिना डोली के पैदल ही दौड़ती खेलती कूदती हवेली पहुंचे । हवेली में तो मानो हंगामा मच गया था एक ही सवाल सब पूछ रहे थे – तुम कहाँ थी प्रभा और ये क्या हाल बना रखा है ? तुम हवेली से बाहर कदम रखी ही क्यों और यदि बाहर गई थी तो डोली से क्यों नहीं गई जवाब दो ? जिंस  के साथ मुझे सात फेरे डालकर सौभाग्यवती होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था उसने है उसी दिन मेरा तिरस्कार कर दिया ।  पूरी समुदाय में तुम्हारी वजह से हमारे खानदान का नाम खराब हो गया है प्रभा अब तुम इस हवेली में रहने के लायक नहीं हो । सबकी बातें सुन कर मैं कितना चुप रहती मेरे मुख से निकल गया ठीक है तो मुझे आप सभी बम्बई भिजवा दो,  वहाँ पे रहते है हमारे कैलाश बाबू । इतना सुनते ही जाने सब को क्या हो गया हमारे पति , ससुर दादा ससुर और सासु माँ सब ने कहा कि एक उल्टा है अब इसका यहाँ रहना ठीक नहीं है । वैसे भी हवेली से लेकर तालाब तक जाते हुए इसको जाने कितने मर्दों  ने देखा होगा सबने इसका चेहरा देख लिया बिना घूंघट के ही दौड़ी गयी थी अब लाज बची ही कहा है। बहादुर बाबू - प्रभा के पति ले ने आवाज लगाई लखिया हरिया ले जाओ इसे और काट के तालाब में फेंक देना सुनो रात्रि के अंधेरे में यह काम करना ताकि किसी को पता न चले ।    

इतने में ही कैलाश बाबू बोल उठते है क्या बकवास कर रही हो प्रभा क्या चल रहा है सबकुछ - क्या तुम मुझे पागल समझती हो तुम मेरे सामने खड़ी हो और तुम ये कह रही हो कि तुम्हे। 

कोई मजाक नहीं चल रहे कैलाश बाबू तुम्हारी प्रभा को आज से 2 साल पहले उसी तालाब में टुकड़ों में काटकर फेंक दिया गया था आज भी मेरे हाथ पैर और शरीर के टुकड़े उसी पानी में पड़े हुए हैं और मैं तब तक नहीं जा सकती यहाँ से जब तक कि तुम मेरा अंतिम संस्कार विधि के साथ नहीं कर देते । और जो ये आजीबाई  है ना इसलिए उस रात की पूरी घटना देख ली थी इसीलिए उसे भी जिंदा उस गहरे कुएं में फेंक दिया था । 

    सुनो कैलाश बाबू उस तालाब से मेरे शरीर के टुकड़ों को निकाल दो ओर उसको वैसे आज ही आजीबाई  हड्डियों को निकालकर अंतिम संस्कार करवा दो इतना तो कर ही सकते हो ना।  

कुछ देर के लिए तो मानो कैलाश बाबू के दिमाग और दिल में ये कैसी हलचल चल रही थी जो सास न  लेने दे रही थी और ना ही सांस रोकने दे रही थी एक लंबी खामोशी अंदर ही अंदर थी सवालों के इतने कटघरे बन गए थे ही कैलाश बाबू खुद संभल नहीं पा रहे थे। 

उनकी खामोशी की चुप्पी को तोड़ती है प्रभा की चीख – अभी सोच रहे हो क्या ये कर्तव्य  भी नहीं निभाओगे? प्रेम का कर्तव्य तो नहीं निभा पाए कम से कम ये तो कर लो। अपने माथे को जोरसे पकड़ते हुए और बिलखकर रोते हुए कैलाश बाबू ने कहा – मुझे माफ़ कर दो प्रभा मुझे माफ़ कर दो ............मैं वो सब करूँगा जिससे मेरी प्रभा को उस दुनिया में शांति मिल सके सुख मिल सके । कैलाश बाबू प्रभा की तरफ देखते हैं और सोचते हैं ये वाक्या  ज़िंदगी का वो अंधेरी रात है जिसमे मैंने अपनी प्रभा की ज़िंदगी के बुझते लालटेन को देखा । इसके बाद कैलाश बाबू सीधा उस तालाब के पास है और प्रभा के शरीर के टुकड़ों को निकलवाकर पूरे विधि विधान के साथ उसका अंतिम संस्कार करते हैं और दूसरी तरफ आजीबाई के शरीर का भी अंतिम संस्कार करवातें हैं ।  

ये सारी क्रिया करने के बाद कैलाश बाबू हवेली में जाते , और हवेली के रंगत को देखकर चौंक जाते हैं । हवेली कारण गुलाबी हो चुका था चारो तरफ फेर फूल पौधे लहलहा रहे थे एवं हर चीज़ अपनी जगह पर बड़े ही सहज रूप में स्थापित  हो चूके थे । जब कैलाश बाबू हवेली के अंदर उस झूले पर देखते हैं तो उनकी प्रभा उनकी तरफ देख रही होती है और हाथ जोड़कर कहती है – अरे ओह कैलाश बाबू अब ऐसे मुँह लटका के क्यों खड़े हो ? हमें शांति मिल रही है आपके हाथों जो हमारा अंतिम संस्कार हुआ है ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं आपकी ब्याहता  बहू हूँ । अब मुझे जाना होगा अब मैं जाऊं ? कुछ ही क्षण के पास वहाँ आजीबाई आ जाती है और दोनों देखते ही देखते एक रौशनी के रूप में परिवर्तित होकर ओझल हो जाती है । 

सामने मेज व कैलाश बाबू की नजर पड़ती है वहाँ हवेली के कागज पढ़े थे हवेली कैलाश बाबू के नाम हो चुका था और वहाँ लिखा था इस हवेली को दान कर देना कैलाश बाबू उन प्रताड़ित महिलाओं के लिए जिन्हें ससुराल में सुख नहीं मिलता कम से कम उन्हें मरना तो नहीं पड़ेगा । यहाँ पे उनकी देखरेख की जाएगी । हमारी हवेली के बगल में जो महिलाओं के लिए एक कार्यसमिति हैं न उन्हीं को दे देना वही करेंगे यह कार्य । जैसा प्रभा ने लिखा था वैसा कैलाश बाबू ने किया और फिर हवेली के तरह हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दिल ही दिल प्रभा को याद करते अपने स्थान को  लौट जाते हैं जाते हैं ।  

शरीर और आत्मा का सम्बन्ध इस दुनिया से दूसरी दुनिया में क्या अस्तित्व रखता है ये कहना तो बड़ा मुश्किल हाँ इतना जरूर है की आत्मा होती जरूर है और मृत्यु के उपरांत भी अधूरी कामना , अधूरे सपने एक मरे हुए इंसान को भी शांति से दूसरी दुनिया में भी रहने नहीं देते । 


By Vandana Singh Vasvani



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