By Amarjeet Kumar
बहुत दिन हुए चांद का दीदार किये हुए
उनसे कहो विरह में मदहोश हो बैठा हूँ ।
प्याली को थाली सा बड़ा समझ बैठा हूँ ।
नाली को नदी सा सुहानी समझ बैठा हूँ ।
अब तो गंदे पानी को शरबत सा समझ बैठा हूँ।
बहुत हो गए किसी दुसरे के चांद को निहारना और सेकना
आपने चांद के बारे में सोचो कि वह भी विरह में जलती होगी
आप नहीं किसी और से सही अपने आग को सेकवाती होगी
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मेरे दोस्त ने कहा चलो आज तुम्हे चांद से मिलवाता हूँ।
तुम्हे तुम्हारा जवानी के संगीन दिन याद दिलवाता हूँ ।
यह सुनकर मानों मेरा रोम रोम तन गाया
मैं दीदार करने ही वाला था कि चांद बादल में छिप गया ।।
उठतीं है विरह का आग मेरे बदन में भी
मगर क्या करूँ कोई नदी पास है भी नहीं
सोचा मैंने बुझालु आग बहती पास नाली में ही
मगर क्या करूँ समाज में बदलाम होने डर जाती नहीं ।।
अब नदियाँ भी गंदी होती जा रही है ।
विरह का आग भी अपने आप बुझती जा रही है ।
रह जायेगी तमन्ना खाली मेरी
अब इस बदन की किसी को जरूरत नहीं
बनकर साख़ उड़ूगा हवा में और चुभूगा उसे
जिसे कभी सामने नज़र आया ही नहीं ।।
By Amarjeet Kumar
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